बुधवार, 19 मई 2010

हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो... -- सुश्री अरूणा राय

क्रिएटिव मंच पर आपका स्वागत है !

इस मंच के शुरआती दौर से ही हमने हिंदी व् अन्य भाषाओँ के चर्चित लेखक / लेखिका की चुनिन्दा रचनाएँ आप के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं ! इसी श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत हैं -'सुश्री अरुणा राय की छह बेहतरीन कवितायें'

आशा है आप का सहयोग एवं सराहना हमें पूर्ववत मिलता रहेगा और प्रस्तुत रचनाओं पर आप के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी !
प्रस्तुति :- -प्रकाश गोविन्द


सुश्री अरूणा राय

aruna rai

परिचय

उपनाम : रोज
जन्‍म : इलाहाबाद
तिथि : 18 नवंबर 1986


प्रकाशन : छोटी उम्र से सक्रिय लेखन,
शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन !


fantasy
कितना छोटा है जीवन
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जीने के लिए
कितनी छोटी है दुनिया
चलने के लिए
कि आदमी पांवों से कम
हवाओं पे चलता है ज्‍यादाIMG_0015
भावों में कम
अभावों में पलता है ज्‍यादा
और बाकी रह जाते हैं सपने
बाकी रह जाता है जीना

एक एक सपने को
सच करने में लग जाते हैं
कई कई युग
पर सपने हैं कि दम नहीं तोडते कभी
अभाव के व्‍यंग्‍य से
जूते चबाता आदमी
देखता रहता है सपने
जीता रहता है सपने
और सच क्‍या है
उस स्‍वप्‍न के सिवा
जो आदमी की नींद में पलता है
जिसके लिए जगकर वह
मीलो मील चलता है
फिर थककर उसी सपने का हो रहता है !
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कुछ तो है हमारे बीच
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कुछ तो है हमारे बीच
कि हमारी निगाहें मिलती हैं
और दिशाओं में आग लग जाती है

कुछ तो है
कि हमारे संवादों पर
निगाह रखते हैं रंगे लोग
और समवेत स्‍वर में
करने लगते हैं विरोध

कुछ तो है कि रूखों पर पोती गयी कालिख
जलकर राख हो जाती है banner-artemis-detail2-DS-BA-024_t

कुछ तो है हमारे मध्‍य
कि हर बार निकल आते हैं हम
निर्दोष, अवध्‍य

कुछ तो है
जिसे गगन में घटता-बढता चांद
फैलाता-समेटता है
जिसे तारे गुनगुनाते हैं मद्धिम लय में
कुछ तो है कि जिसकी आहट पा
झरने लगते हैं हरसिंगार
कुछ है कि मासूमियत को
हमपे आता है प्‍यार...
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अदृश्य परदे के पीछे से
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अदृश्य परदे के पीछे से
दर्ज़ कराती जाती हूँ मै
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा

अक्सर
उन शामतों की शक्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी
इन शक्लों की शुरूआत
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै3801_symposium_200_tn
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से
खाली नहीं हुई है दुनिया

खाली नहीं हुई है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै
पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पड़ना चाहती हैं वे शक्लें
कि यही रिवाज है परंपरा है

कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है
अपनी सहृदयता का, न्यायप्रियता का
उस उल्लास का
जिससे मुझे हुलसाया था

और ठमक जाती हूँ मै
सोचती हुई-
क्या चेहरे की चमक
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफ़ी नहीं जीने के लिए

सोच ही रही होती हूँ कि
फ़ैसला आ जाता है परमपिताओं का
और चीख़ उठती हूँ -
हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो!
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अभी तूने वह कविता कहाँ लिखी है, जानेमन
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अभी तूने वह कविता कहाँ लिखी है, जानेमन
मैंने कहाँ पढ़ी है वह कविता
अभी तो तूने मेरी आँखें लिखीं हैं, होंठ लिखे हैं
कंधे लिखे हैं उठान लिए
और मेरी सुरीली आवाज लिखी है

पर मेरी रूह फ़ना करते
उस शोर की बाबत कहाँ लिखा कुछ तूने
जो मेरे सरकारी जिरह-बख़्तर के बावजूद
मुझे अंधेरे बंद कमरे में
एक झूठी तस्सलीबख़्श नींद में ग़र्क रखता है Giacomo_Balla-Mercury_Passing_Before_the_Sun-Tempera_on_Canvas_Board-1914

अभी तो बस सुरमयी आँखें लिखीं हैं तूने
उनमें थक्कों में जमते दिन-ब-दिन
जिबह किए जाते मेरे ख़ाबों का रक्त
कहाँ लिखा है तूने

अभी तो बस तारीफ़ की है
मेरे तुकों की लय पर प्रकट किया है विस्मय
पर वह क्षय कहाँ लिखा है
जो मेरी निग़ाहों से उठती स्वर-लहरियों को
बारहा जज़्ब किए जा रहा है

अभी तो बस कमनीयता लिखी है तूने मेरी
नाज़ुकी लिखी है लबों की
वह बाँकपन कहाँ लिखा है तूने
जिसने हज़ारों को पीछे छोड़ा है
और फिर भी जिसके नाख़ून और सींग
नहीं उगे हैं

अभी तो बस
रंगीन परदों, तकिए के गिलाफ़ और क्रोशिए की
कढ़ाई का ज़िक्र किया है तूने
मेरे जीवन की लड़ाई और चढ़ाई का ज़िक्र
तो बाक़ी है अभी...

अभी तुझे वह कविता लिखनी है, जानेमन...
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आखिर हम आदमी थे
==============
इक्कीसवीं सदी के
आरंभ में भी
प्यार था
वैसा ही आदिम
शबरी के जमाने सा
तन्मयता वैसी ही थी
मद्धिम था स्पर्श
गुनगुना...
आखिर हम आदमी थे
इक्कीसवीं सदी में भी..
कि अपना ख़ुदा होना
=============
ग़ुलामों की
ज़ुबान नही होती
सपने नही होते
इश्क तो दूर
जीने की
बात नही होती
मैं कैसे भूल जाऊँ
अपनी ग़ुलामी
कि अपना ख़ुदा होना
कभी भूलता नहीं तू...
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The End
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बुधवार, 12 मई 2010

मत बांधिए उसके अन्दर की आग को -- 'ऋतु पल्लवी'

क्रिएटिव मंच पर आप का स्वागत है !

इस मंच के शुरआती दौर से ही हमने हिंदी व् अन्य भाषाओँ के चर्चित लेखक / लेखिका की चुनिन्दा रचनाएँ आप के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं ! इसी श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत हैं -'डा० ऋतु पल्लवी की पांच बेहतरीन कवितायें'

आशा है आप का सहयोग एवं सराहना हमें पूर्ववत मिलता रहेगा और प्रस्तुत रचनाओं पर आप के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी !
प्रस्तुति :- -प्रकाश गोविन्द


डॉ. ऋतु पल्लवी
Ritu Pallavi
परिचय

जन्म : 16 अक्तूबर 1978
जन्म स्थान : सीतामढी (बिहार)
शिक्षा- 'निर्मल वर्मा के उपन्यासों में चरित्र एवं परिवेश' पर शोध कार्य।
व्यवसाय- केंद्रीय विद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षिका हिंदी।
प्रकाशन- 'कादम्बिनी' में कविता, पूर्वग्रह (भारत भवन प्र.) में लेख, के.वि. त्रैमासिक पत्रिका में समय-समय पर लेख, कविता आदि। नेट पत्रिका 'अनुभूति' पर कविताएँ और 'अभिव्यक्ति' पर पुस्तक समीक्षा प्रकाशित।
रुचि- साहित्यिक पठन-पाठन एवं लेखन।

fire-storm-peter-shor
औरत
=====
पेचीदा, उलझी हुई राहों का सफ़र है
कहीं बेवज़ह सहारा तो कहीं खौफ़नाक अकेलापन है
कभी सख्त रूढि़यों की दीवार से बाहर की लड़ाई है...
..तो कभी घर की ही छत तले अस्तित्व की खोज है
समझौतों की बुनियाद पर खड़ा ये सारा जीवन
जैसे-जैसे अपने होने को घटाता है...
दुनिया की नज़रों में बड़ा होता जाता है
...कहीं मरियम तो कहीं देवी की महिमा का स्वरूप पाता है!
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जीने भी दो
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महानगर में ऊँचे पद की नौकरी
अच्छा-सा जीवन साथी और हवादार घर
यही रूपरेखा है-
युवा वर्ग की समस्याओं का और यही निदान भी। Fan-Death-II-500

इस समस्या को कभी आप तितली,
फूल और गंध से जोड़ते हैं,
रूमानी खाका खींचते हैं,
उसके सपनों, उम्मीदों-महत्वाकांक्षाओं का।

कभी प्रगतिवाद, मार्क्सवाद, सर्ववाद से जोड़कर
मीमांसा करते हैं उसके अन्तर्द्वन्द्व
साहस और संघर्ष की।
छात्र आन्दोलनों, युवा रैलियों, राजनीति से जोड़ते हैं
कभी उसके अन्दर के
विद्रोह, क्रान्ति और सृजन को।

मत बांधिए उसके अन्दर की आग को इन परिभाषाओं में
जिन से जुड़कर वह केवल
वाद, डंडों और मोर्चों का होकर रह जाता है।


जीने दीजिये उसे अपना नितांत निजी जीवन
अपने सपने, अपना संघर्ष
अपनी समस्याएँ, अपना निदान!
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वेश्या
=====
मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँpainting 001
क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को
अपवित्र होने से बचाती हूँ।

सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ
कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ।

मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ
जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता
जो घर को, घर नहीं
द्रौपदी के चीरहरण का सभालय बना देता।

मैं अपने अस्तित्व को तुम्हारे कल्याण के लिए खोती हूँ
स्वयं टूटकर भी, समाज को टूटने से बचाती हूँ
और तुम मेरे लिए नित्य नयी
दीवार खड़ी करते हो।
'बियर बार' और ' क्लब' जैसे शब्दों के प्रश्न
संसद मैं बरी करते हो।

अगर सचमुच तुम्हे मेरे काम पर शर्म आती है
तो रोको उस दीवार पार करते व्यक्ति को
जो तुम्हारा ही अभिन्न साथी है।
मैं तो यहाँ स्वाभिमान के साथ
तलवार की नोंक पर रहकर भी,
तन बेचकर, मन की पवित्रता को बचा लेती हूँ

पर क्या कहोगे अपने उस मित्र को
जो माँ-बहन, पत्नी, पड़ोसियों से नज़रें बचाकर
सारे तंत्र की मर्यादा को ताक पर रखकर
रोज़ यहाँ मन बेचने चला आता है।
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क्यों नहीं
=========
नीला आकाश, सुनहरी धूप, हरे खेत
पीले पत्ते ही क्यों उपमान बनते हैं !

कभी बेरंग रेगिस्तान में क्यों
गुलाबी फूलों की बात नहीं होती ? Painting_P3_04.246162826

रूप की रोशनी ,तारों की रिमझिम,
फूलों की शबनमी को ही क्यों सराहते हैं लोग!

कभी अनमनी अमावस की रात में क्यों
चाँद की चांदनी नहीं सजती ?

नेताओं के नारे ,पत्रकारों के व्यक्तव्य
कवि के भवितव्य ही क्यों सजते हैं अखबारों में!

कभी आम आदमी की संवेदना का सम्पादन
क्यों नहीं छपता इन प्रसारों में ?

मैं तुम्हें प्रेम भरी पाती ,संवेदनशील कविता,सन्देश,आवेश
या आक्रोश कुछ भी न भेजूं!

फिर भी मुखरित हो जाए मेरी हर बात
कभी क्यों नहीं होता ऐसा शब्दों पर,मौन का आघात..?
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मृत्यु
======

जब विकृत हो जाता है,हाड़-मांस का शरीर
निचुड़ा हुआ निस्सार489
खाली हो जाता है
संवेदना का हर आधार..
सोख लेता है वक्त भावनाओं को,
सिखा देते हैं रिश्ते अकेले रहना (परिवार में)
अनुराग,ऊष्मा,उल्लास,ऊर्जा,गति
सबका एक-एक करके हिस्सा बाँट लेते हैं हम
और आँख बंद कर लेते हैं.
पूरे कर लेते हैं-अपने सारे सरोकार
और निरर्थकता के बोझ तले
दबा देते हैं उसके अस्तित्व को
तब वह व्यक्ति मर जाता है,अपने सारे प्रतिदान देकर
और हमारे केवल कुछ अश्रु लेकर..

***********************************************************
The End

बुधवार, 5 मई 2010

श्रेष्ठ सृजन प्रतियोगिता - 9 का परिणाम

प्रतियोगिता संचालन :- - प्रकाश गोविन्द


srajan result 9

प्रिय मित्रों/पाठकों/प्रतियोगियों नमस्कार !!
आप सभी लोगों का हार्दिक स्वागत है

हम 'श्रेष्ठ सृजन प्रतियोगिता अंक- 9' का परिणाम लेकर आप के सामने उपस्थित हैं. हमेशा की तरह इस बार भी सभी प्रतिभागियों ने सुन्दर सृजन किया ! बेहद हर्ष के साथ सूचित कर रहे हैं कि इस बार श्रेष्ठ सृजन का चयन डॉ.कुलवंत सिंह जी ने किया है.
***********************************
युवकों का आदर्श भगत सिंह, / हृदयों का सम्राट भगत सिंह /
हर कोख की चाहत भगत सिंह,/ शहादत की मिसाल भगत सिंह .
.
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ले हथेली शीश था आया,/ नेजे पर वह प्राण था लाया /
अभिमानी था, झुका नही था, / दृढ़ निश्चय था, रुका नही था
***********************************
मोल नही कुछ मान मुकुट का,/मोल नही कुछ सिंहासन का /
जीवन अर्पित करने आया,/ माटी कर्ज़ चुकाने आया. .
***********************************
इन देशभक्ति से परिपूर्ण ओजस्वी पंक्तियों के रचियता डॉ.कुलवंत सिंह जी हैं! हमने जब उनके ब्लॉग पर शहीद भगत सिंह को समर्पित यह काव्य-गाथा पढ़ी तो आँखें भर आयीं ! आप लोग भी कुलवंत जी की यह कालजयी रचना को पढ़कर उस राष्ट्रीयता की भावना को महसूस कीजिये जो आज विलुप्तप्राय हो चली है!

नौ अंकों के इस सफर में हमें बहुत ही अच्छी रचनाएँ प्राप्त हुईं. परिणाम में पारदर्शिता और निष्पक्षता रखने हेतु हर अंक के निर्णायक बदले गए, निर्णायकों को सिर्फ रचनाएँ भेजी जाती थीं. उन्हें निर्णय सार्वजानिक होने तक यह नहीं मालूम होता था कि कौन सी रचना किस ने लिखी है ! आप का सहयोग भी बना रहा और अब तक के सभी अंक निर्विवाद संपन्न हो सके !

इस बार हमें विभिन्न रचनाकारों की कुल अठ्ठारह रचनाएं प्राप्त हुयी थीं ! जिनमें से चार रचनाओं को शामिल कर पाने में हम असमर्थ थे !


पूरी उम्मीद है कि चारों रचनाकार तनिक भी अन्यथा न लेते हुए सदभाव बनाए रखेंगे ! अपने मन के भावों को शालीनता से भी कहा जा सकता है ... इस बार के सृजन में व्यक्ति विशेष पर लिखने की कोई बात ही नहीं थी ... हम तो चाहते थे कि दूषित होते लोकतांत्रिक मूल्यों पर बात कही जाए !

हमें प्रसन्नता है कि इस बार भी अत्यंत खुबसूरत रचनाएं प्राप्त हुयीं ! इस बार प्रथम क्रम पर दुष्यंत जोशी जी की राजस्थानी रचना का चयन किया गया ! द्वितीय और तृतीय क्रम पर क्रमशः सुश्री शुभम जैन जी एवं सुश्री सोनल रस्तोगी जी की रचनाओं को चुना गया !
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हम सृजन प्रतियोगिता को कुछ समय के लिए स्थगित कर रहे हैं.
कुछ समय पश्चात हम इस सृजन कार्यक्रम को पुनः जारी रखेंगे! इस दौरान क्रिएटिव मंच पर अन्य रचनात्मक व साहित्यिक गतिविधियाँ चलती रहेंगी. आप का सहयोग, स्नेह और प्रोत्साहन आगे भी क्रिएटिव मंच को मिलता रहेगा.

सभी सृजनकारों एवं समस्त पाठकों को बहुत-बहुत बधाई/शुभकामनाएं.

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श्रेष्ठ सृजन प्रतियोगिता- 9 में 'श्रेष्ठ सृजन' का चयन
डॉ.कुलवंत सिंह जी द्वारा
kulvant ji सुश्री मानवी जी एवं क्रिएटिव मंच से संबंधित आप सब मित्रों को सादर नमस्कार..

अति सुंदर कार्य के लिये..मेरा नमन...

प्रविष्टियों को क्रम देना......... एक कठिन कार्य है !
फिर भी दायित्व तो निभाना ही है ........

यथा-संभव चित्र से तालमेल, लय, शव्द शिल्प, भाव, गेयता, इत्यादि को ध्यान में रखते हुये...यह क्रम दिया गया है !

आप समस्त रचनाकारों को हार्दिक शुभ कामनाएं !

आभार
- कुलवंत
श्रेष्ठ सृजन प्रतियोगिता अंक- 9 का परिणाम
पिछले अंक का चित्र
adhunik loktantra
1. दुष्यंत जोशी जी
dushyant joshi
सोने सूं मूंगो हुवे,
फूलां रो गळ हार,
हार गल़े रो फूटरो,
चावे नर अर नार.

मो' माया रे जाळ में ,
फंस्या पड्या है लोग,
सत्ता जिण रे हाथ में ,
हुवे भाग संजोग.

जण साजे उण ने घणों,
जिण रे हाथां साज,
उण रे गल़े में हार है,
अर उण रे माथे ताज.

-- दुष्यंत जोशी, हनुमानगढ़ जं., राजस्थान

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* ये राजस्थानी कविता.......... इसमें कहा गया है कि गले के लिए फूलों का हार सोने से भी महंगा होता है.. लोग मोह और माया के जाल में फंसे हुए हैं. जिसके भाग्य में होता है.. सत्ता उसी के हाथ होती है. और जनता भी केवल उसी का सम्मान करती है... जिसके हाथ में राज-पाट होता है. उसी के गले में हार पहनाया जाता है और उसी को ताज पहनाया जाता है...
राजस्थानी शब्दों के अर्थ :-
मूंगो = महंगा, फूटरो = सुन्दर, चावे = चाहते, मो' माया = मोह माया, जाळ = झंझट, फंस्या = फंसे हुए , पड्या = पड़े , जिण = जिसके, हुवे = होता है, संजोग = संयोग, जण = जनता, उण = उसे, घणों = ज्यादा,
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एक तरफ सिर स्वर्ण मुकुट है
दूजे नंगी खाल है,
माया की वर्षा है इन पर
जनता भूखी बेहाल है/

गले फूल का हार पहन ये
खुद को प्रभु सा जाना है,
भला बुरा सब भूल कर बंधू
माया ज्ञान बखाना है/

प्रजातंत्र का राग सुना कर
अच्छा रास रचाया है,
भ्रस्टाचार और आतंकवाद को
नेताओ ने ही बढाया है/

आज के नेता देखो लोगो
नया शिगूफा गाते है,
देश महान कहो ना कहो
ये खुद को महान बताते है/
shubham jain ji
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sonal rastogi
ताज रक्खा या रखवाया
प्रदर्शन है शक्ति का
सत्ता का मद स्वयं में
विषय है आसक्ति का

ये आडम्बर की रीत तो
सदियों से जारी है
सदा मंच पर पुरुष था होता
अबकी बारी नारी है
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यह माया का लोकतंत्र
या लोकतंत्र की माया है
लोक हुआ नदारद देखो
दिखती महज काया है !!
मनुवाद के सीने चढ़कर
सिंहासन तक पहुंचे जो
आज उन्ही के रंग-ढंग में
मनुवाद का ओढा साया है !!
राजनीति के खेल ने बंधु
एक रंग में रंग डाला
चाल-चरित्र-चेहरे का अंतर
सबमें एक सा पाया है !!
aditi chauhan ji
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sulabh satrangi


सहस्त्र पुष्पमालाओं का वृत्त
राजसी मुकुट रूप मुखरित
पद प्रतिष्ठा आलिशान है
लोकतंत्र का भव्य सम्मान है.
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पराजित है लोकतंत्र
पराजित है जीवन मंत्र
संचालक हैं नेता
कठपुतली है जनता
आरोप है-प्रत्यारोप है
मिट रही आस है
टूटते विश्वास हैं
धार्मिक उन्माद है
जातिगत संकीर्णता है
क्रीड़ा बेशर्मों की
पीड़ा मासूमों की
हाय ............
औंधा पड़ा लोकतंत्र
पराजित लोकतंत्र
shivendra
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amit tyagi
चाहे कहे कोई कुछ कहानी
देश में तो मैं ही हूँ रानी
कभी पहनूं हार कभी मुकुट
जितने मुंह उतनी कहानी
दलित की बेटी का उत्थान
नहीं देख सकते लोग
इसलिए लगाते हैं
गलत आक्षेप लोग

माला पहनूं, हार पहनूं या पहनूं मुकुट
तुम सामने चिढ़ते रहो चिरकुट
जब तक जनता है मेरे साथ
तुम करते रहो उलटी सीधी बात

कोई फर्क नहीं पड़ता मुझे
जब तक सत्ता में हूँ,
चरण पूजना पड़ेगा तुझे.
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'नाम के नेता'
=============
नेताओं की बात करें क्या ,
नेता तो अभिनेता हैं.
फूलों की माला वो पहने,
चाहे नोटों की माला,
जनता की परवाह नहीं करते
करते हैं ये घोटाला ,

जो भी करता इनका वंदन,
बड़े बड़े पद पा जाएँ.
जो मुंह खोले, इन्हें टटोले ,
समझ निवाला खा जाएँ.
नेताओं की बात करें क्या,
'नाम' के ही ये नेता हैं!
alpana ji
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9. सुश्री कमलेश्वरी जी
kamleshwari ji
आधुनिक यह लोकतन्त्र,
इसका गहरा जान मन्त्र.
जग जीते ख़ुद जीत,
बन फिर सबका मीत.
चेहरे पर मुस्कान,
रख अपनों का ध्यान.
जहाँ जहाँ ही जाएगा,
हार- ताज तूं पाएगा.
प्रजातंत्र के नाम पे रचा अनूठा स्वांग
फूलों की माला से स्वागत नेताओं की मांग
नेताओं की मांग, मांग कुछ समझ न आए
कैसी है यह "माया" जो जनता को खाए
खुद बैठे 'बिल्डिंग' में 'पब्लिक' गटर में जाए
'एसी' में ये बैठे, हमको 'हवा' न आए
'माला' की माला ये रटते, करें दिखावा घोर
भाई-'बहनजी' का है नाता, चाहे कर लो शोर
ramkrishn gautam
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roshni ji
'हमारी प्यारी रानी'
================
ओ हमारी रानी
कब बनोगी सायानी?
कभी पहनती फूलों की माला
तो कभी नोटों की
कभी बनवाती मूर्तियाँ अपनी
पैसा बहाती जनता की
कभी सवारी हाथियों की
तो कभी जनता की
पर याद रखो ओ रानी
करना न मनमानी
जनता ने जो प्यार दिया
करो उसका सम्मान
उनकी बातों को सुनो रानी
जिनकी कोई ना सुनता है
उन वर्गों का नेतृत्व करो
जो गलत राह को चुनता है
उन्हें सही राह पर लाना है
भटकने से बचाना है
जो जिम्मेदारी तुम्हें मिली है
उसे तुम्हें निभाना है
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पहले राज,
फिर ताज,
बाद में बाज,
यही है
राजनीति का राज..
12. रितुप्रिया शर्मा जी
ritu priya sharma
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deen dayal sharma

किसी को मिले हार,
किसी के गले हार,
किसी पे गिरे गाज़,
किसी ने पहना ताज,
सब ईश्वर की माया है,
कहीं धूप कहीं छाया है.
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ना कोई परी ना मै कोई हूर हूँ
आप गलत न समझे
मै सच मे बेकसूर हूँ
ये ताज भी मुझसे ,
न उठाया जा रहा है
देखो यहाँ जबरन ,
मेरा फोटॊ खिंचवाया जा रहा है
रोक नही पा रही हूँ -हँसी
दिख रहे है दाँत-थोडे बडॆ हैं
आप भी देखकर हँस रहे होंगे...
क्योंकि ये कैसे माला पकडे खडे हैं...
archana ji
securedownload
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चलते चलते एक निवेदन
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हमने हमारी पोस्ट की प्रकृति और आवश्यकता के अनुसार 'मोडरेशन' लगाया हुआ है ! एक भी प्रतिक्रिया (अपशब्द वाली प्रतिक्रियाओं को छोड़कर) को कभी हटाया या छुपाया नहीं ! क्रिएटिव मंच पर कटु से कटु आलोचनाओं / समालोचना का भी सदैव स्वागत है, परन्तु निरर्थक निराधार आलोचना से हम भी आहत होते हैं !

हम कैसे और बेहतर हो सकते हैं इसके लिए अपने सुझाव और सहयोग दें ! अनामी / बेनामी आलोचकों से यही निवेदन है कि अगर आप हमारी मेहनत और प्रयास को सराह नहीं सकते, तो कम से कम हतोत्साहित करने की कोशिश तो करें !

स्नेह सहित
The End