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बुधवार, 15 अगस्त 2012

बेमिसाल व्यक्तित्व की मिसाल - कैप्टन [डा०] लक्ष्मी सहगल



स्वाधीनता दिवस के पावन अवसर पर क्रिएटिव मंच की तरफ से
आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं

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जय हिंद
जय भारत
साहस और मानव सेवा की मिसाल :
कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल (Captain Dr. Laxmi Sehgal)
(जन्म: 24 अक्टूबर, 1914 - मृत्यु: 23 जुलाई 2012)
देश, समाज, बेसहारा और गरीबों के लिए अपना जीवन बिता देने वाली कैप्टेन लक्ष्मी सहगल के जाने के साथ ही एक युग समाप्त हो गया है ! लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से थीं, जो बहादुरी और सेवा भावना के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए जीवन पर्यंत याद की जायेंगी !

जंग-ए-आजादी की सिपाही, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की सहयोगी और आजाद हिंद फ़ौज की कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल जीवन की आखिरी वक़्त तक सक्रिय रहीं ! बीमार होने से एक दिन पहले तक भी आर्यनगर स्थित अपने क्लीनिक में उन्होंने मरीजों का इलाज किया था ! 98 वर्ष की उम्र का हर पल सेवा के लिए ही समर्पित रहा !
परिचय
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मां अम्मुकुट्टी, पिता एस.स्वामीनाथन, बड़े भाई गोविन्द स्वामी नाथन तमिलनाडु के एडवोकेट जनरल के पद पर रहे ! छोटा भाई एस.के.स्वामीनाथन महिंद्रा एंड महिंदा के डायरेक्टर थे ! छोटी बहन भरतनाट्यम व कत्थककली की मशहूर नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई ! 1948 में उन्होंने बेटी सुभाषिनी को जन्म दिया !
साहस और मानव सेवा की मिसाल
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कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से एक थीं, जो बहादुरी और सेवा भावना के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए जीवन पर्यंत याद की जायेंगी ! डा० सहगल अदभुत मिसाल थीं, जिसे देश कई मामलों में भारत के इतिहास की प्रथम महिला के रूप में कभी नहीं भूल पायेगा ! 98 साल की उम्र में भी डा० सहगल ने मरीजों की सेवा करने की नई इबारत लिखी ! समाज सेवा और देश के लिए कुछ करने का ज़ज्बा इन्हें अपने परिवार से विरासत में मिला था ! पिता डाक्टर एस.स्वामीनाथन मद्रास हाईकोर्ट में मशहूर वकील थे और मां एवी अम्माकुट्टी समाज सेवा के कारण पूरे मद्रास में अम्मुकुट्टी के नाम से जानी जाती थीं !

डा० सहगल के संघर्ष की शुरुआत 1940 से हुई ! मद्रास मेडिकल कालेज से 1938 में डाक्टरी की पढाई करने के दो वर्ष बाद वह सिंगापुर चली गयीं ! गरीबों का इलाज करने के लिए वहां एक क्लीनिक खोली ! द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था ! सिंगापुर में उन्हें ब्रिटिश सेना से बचने के लिए जंगलों तक में रहना पड़ा ! तब वे सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज की कमांडर बन गई थीं ! सिंगापुर में हर वक़्त पकडे जाने का डर लगा रहता था, लेकिन डा० सहगल की कोशिश होती कि अपने वतन से आये लोगों की सेवा करती रहें ! मरीजों का इलाज करना और देश को आजाद कराना उनका लक्ष्य बन गया था ! मलायां पर हमले के बाद उन्हें जंगलों तक में भटकना पड़ा ! एक बार तो दो दिन तक जंगलों में पानी तक नसीब नसीब नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने हौसला नहीं खोया ! ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सेनानियों की धरपकड़ में उन्हें भी 4 मार्च 1946 को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया !

कम लोग जानते हैं कि डा० लक्ष्मी सहगल का पहला विवाह 1936 में बी.के.राव के साथ हुआ था, लेकिन यह सम्बन्ध सिर्फ 6 माह ही चल सका और दोनों अलग हो गए ! राव चाहते थे कि डा० लक्ष्मी सहगल एक गृहणी बने, पर वे इसके लिए तैयार नहीं थीं ! 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह करने के बाद वह कानपुर आकर बस गयीं, आर्यनगर की पतली सी गली में अपनी क्लीनिक जरिये पांच दशकों तक मरीजों की सेवा की ! डा० सहगल 1984 के दंगों से बहुत आहत रहीं ! इस दंगे ने कई दिन तक उन्हें क्लीनिक से घर तक आने-जाने में मुश्किल खड़ी की थीं ! पर उन्हें इस बात की संतुष्टि थी कि उस दौरान हर मरीज की सेवा करने का मौका मिला !

पदम् विभूषण से सम्मानित डा० सहगल जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्य रहीं ! सार्वजनिक मंचों और क्लीनिक पर डा० लक्ष्मी सहगल महिलाओं को नसीहत देती रहती थीं कि संघर्ष महिलाओं का गहना है, उसे तो बेटी, बहन, पत्नी और मां बन कर जीने और लड़ने की आदत हो जाती है ! यही उसकी ताकत है, जो सदियों से समाज को संस्कार और जिंदगी जीने का फलसफा बता रही है !
डा० सहगल ने नेता जी से कहा था, हम बनायेंगे महिला वाहिनी
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि आजाद हिंद फ़ौज में महिला वाहिनी भी होनी चाहिए ! जब तक महिला व पुरुष मिलकर नहीं लड़ेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा ! यह बात डा० लक्ष्मी सहगल को पता चली जो उस समय सिंगापुर में डाक्टरी कर रही थीं तो उन्होंने नेता जी से मुलाक़ात की और कहा, 'अगर आपको मेरे ऊपर विश्वास है तो जिम्मेदारी दीजिये ! हम महिला वाहिनी बनायेंगे !' डा० सहगल ने रानी झांसी रेजिमेंट की सेनानायक की जिम्मेदारी संभाली थी !
निभाये कई किरदार
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98 वर्ष की यात्रा में डा० सहगल ने कई तरह के वास्तविक किरदार निभाये ! वह कभी बेटी बनी तो कभी मां ! सिंगापुर के रणक्षेत्र में सैनिक का किरदार निभाया तो डाक्टर बन गरीबों और जरुरतमंदों की सेवा भी आगे बढ़कर की ! वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति के मैदान में सक्रिय पारी खेली, लेकिन उन्हें सबसे अच्छा किरदार मरीजों की निःस्वार्थ सेवा का लगा ! अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव में भी उन्होंने क्लीनिक पर दो-तीन घंटे जाने और मरीजों की सेवा करने का सिलसिला जारी रखा !

यूँ तो जिंदगी की यात्रा भले ही डा० सहगल ने चेन्नै से शुरू की हो, पर वैभव उन्हें कभी रास नहीं आया ! वह हमेशा लोगों के लिए लड़ती रहीं ! उनकी शिक्षा-दीक्षा भले ही पश्चिमी परिवेश में हुयी, पर भारतीयता उनमें कूट-कूटकर भरी हुयी थी ! अंग्रेजी स्कूलों में अपने दो भाईयों के साथ शिक्षा ली ! मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस करने के बाद सिंगापूर चली गयीं ! सिंगापूर में आजाद हिंद फ़ौज में शामिल होकर द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदारी की ! हर बार उन्हें मरीजों की सेवा करना ज्यादा भाता था ! पैथोलाजी जांचों की अपेक्षा उन्होंने डायग्नोसिस को ज्यादा महत्व दिया ! इसीलिए कानपुर में स्त्री रोग के क्षेत्र में उन्हें कोई पकड़ नहीं पाया !

1971 के युद्ध में भी निभाया अहम रोल
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डा० सहगल का 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अहम योगदान रहा है ! इस युद्ध में वह 'जन सहायता समिति' के बुलावे पर बांग्लादेश सीमा के बोनगांव गई थीं ! शरणार्थी शिविरों में बीमार लोगों का इलाज किया ! यहाँ उन्हें जानकारी मिली कि मुक्तिवाहिनी के सदस्यों को पाक सेना परेशान कर रही है ! डा० सहगल ने बोनगांव की हालत पर एक रिपोर्ट भी सेना को सौंपी थी, उसी के बाद वहां के खराब हालात ठीक हुए !
जीवटता
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आर्य नगर में बना डा० लक्ष्मी सहगल क्लीनिक एंड मेटरनिटी सेंटर गवाह है, उस ज़ज्बे का जिसे सभी डाक्टरों को अपनाना चाहिए ! इस हास्पिटल में प्रतिमाह 30 से 35 डिलीवरी होती हैं ! वह भी सामान्य और बहुत कम खर्च में ! अगर बीमार महिला पैसे देने में असमर्थ है तो भी उसका इलाज होता है और दवाएं मुफ्त दी जाती हैं ! डा० सहगल की मौत के बाद उस हास्पिटल में सन्नाटा छा गया और पूरा स्टाफ व मरीज गम में डूब गए ! करीब 54 वर्ष पूर्व किराए की जगह लेकर डा० सहगल ने चार कमरों का हास्पिटल खोला था ! इसमें महिलाओं के सभी रोगों का इलाज होता है !
देहदान--नेत्रदान किया
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डा० सहगल ने नेत्र व देहदान की इच्छा जताई थी ! निधन के तत्काल बाद डा० महमूद एच रहमानी की टीम ने उनका कार्निया निकालकर सरंक्षित कर लिया ! अगले ही दिन डाक्टरों की इसी टीम ने डा० सहगल के दोनों कार्निया के सहारे दो नेत्रहीनों को रोशनी प्रदान की !
लक्ष्‍मी सहगल जी का जीवन उच्‍चतम मूल्‍यों और आदर्शों से परिपूर्ण रहा .... ऐसी महान व्यक्तित्व की धनी 'कैप्टेन लक्ष्मी सहगल जी' की स्मृति को हम शत-शत नमन करते हैं !
वन्दे मातरम् !!


क्रियेटिव मंच
creativemanch@gmail.com
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The End

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

'गुरुदत्त' (Guru Dutt) - जो अपने समय से बहुत आगे थे !

प्रस्तुति--अल्पना वर्मा

अपने समय से बहुत आगे सोचने वाले कलाकार-
निर्देशक-निर्माता-अभिनेता -गुरदत्त
Tribute On his birth anniversary today
9 जुलाई 1925 में बैंगलोर में पैदा हुए. उनका असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था. कलकत्ता में पढ़े -लिखे. नृत्य से उन्हें बेहद लगाव था. 14 साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता में सारस्वत ब्राह्मणों के समारोह में एक बार सर्प नृत्य किया था. जिसके लिए उन्हें 5 रूपये इनाम मिले थे. पंडित उदय शंकर जी की अकेडमी से मोडर्न नृत्य सिखा. कोलकता में टेलीफोन ओपेरटर नौकरी की और फिर 1944 में पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो पहुंचे. वे डांस डायरेक्टर [ कोरियोग्राफर] थे. बेरोज़गारी के दिनों में उन्होंने इलस्ट्रेटेड वीकली, एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिए लघु कथाएँ भी लिखीं.
एक बार प्रेसवाले ने देव आनंद और गुरुदत्त की कमीज़ की अदला-बदली कर दी और इस रोचक घटना के द्वारा प्रभात स्टूडियो में उनकी मुलाकात देव आनंद से हुई और दोनों बहुत अच्छे दोस्त बने. उनके मुम्बई आने पर देव आनंद ने अपने वादे के मुताबिक उन्हें नवकेतन बैनर के तहत बनी अपनी फिल्म बाज़ी में रोल दिया. बाज़ी सुपर हिट हुई और जो लोग उस के साथ जुड़े वे भी सभी हिट हो गए.
बाज़ी में कल्पना कार्तिक से जहाँ उनकी देव आनंद से मुलाक़ात हुई वहीँ गीता दत्त और गुरुदत्त की पहली मुलाकात भी हुई,जो उनके प्रेमिका और फिर पत्नी बनीं.फिल्म -बाज़ में उन्होंने पहली बार मुख्य रोल किया. इसी पहली फिल्म से अपना बेनर भी शुरू किया .वहीदा रहमान को पहला ब्रेक गुरुदत्त ने अपनी अगली फिल्म [बतौर निर्माता] 'सी .आई .डी' में दिया.
1957 में रिलीज हुई प्यासा में समाज से निराश नायक 'विजय' को देखकर सभी हैरान हो गए थे. 20 वर्षीय वहीदा को नृतकी 'गुलाबो' के रूप में बतौर अभिनेत्री उनकी पहली फिल्म दी. गुरुदत्त कहते थे फिल्म को दुखद अंत देना परंतु मित्रों की सलाह पर उन्होंने ऐसा नहीं किया.
'तंग आ चुके हैं हम कश्मकशे जिंदगी से हम'
हम गमजदा है लाएँ कहाँ से खुशी के गीत,
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम.
आज़ादी के दस साल भी नहीं हुए और समाज के प्रति इतनी निराशा लिए लीक से हट कर बनी उनकी फिल्म ने कई सवाल खड़े कर दिए. . लगा गुरुदत्त की इस फिल्म के साथ हिंदी सिनेमा भी जाग उठा ! अपने आस पास देखने लगा.

मेकिंग ऑफ प्यासा -
फिल्म में एक संवाद है..
"मुझे शिकायत है उस समाज के उस ढाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है' मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है. दोस्त को दुश्मन बनाता है. बुतों को पूजा जाता है, जिन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है. किसी के दुःख दर्द पर आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है. छुप कर मिलना कमजोरी समझा जाता है."
'कागज़ के फ़ूल' फिल्म उनकी अपनी बायोग्राफी ही कही जाती है. फिल्म की असफलता पर उन्होंने कहा था 'जिंदगी में और है ही क्या ? सफलता और सफलता ! उसके बीच का कुछ नहीं. व्यवसायिक सफलता न मिलने के कारण उन्होंने अगली फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई -प्रेम त्रिकोण पर 'चौदहवीं का चाँद' फिल्म, जो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही. उस फिल्म की सफलता के बाद भी वह निराश थे कुछ ऐसा था जो उन्हें गुमसुम रखता था .

एक फिल्म के सेट पर उन्होंने कहा था :
देखो न, मुझे डायरेक्टर बनना था बन गया, एक्टर बनना था, बन गया. अच्छी फ़िल्में बनाना चाहता था ,बनाईं. पैसा है, सब कुछ है पर कुछ भी नहीं रहा !

बतौर निर्माता उनकी आखिरी फिल्म एक बंगाली उपन्यास पर आधारित फिल्म- 'साहब बीवी और गुलाम' थी. जिसका हर किरदार यादगार है. कला की उंचाईयों को छूती हुई भावनाओं में लिपटी थी यह फिल्म. और यह उनकी आखिरी फिल्म थी. उनका कहना था -''ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ! कहने वाले गुरुदत्त इस दुनिया से बेजार हो चुके थे. 'कागज़ के फ़ूल जहाँ खिलते हैं बैठ न उन गुलज़ारों में'.. यही कहते -कहते वो महकता हुआ सच्चा फ़ूल 10 अक्टूबर 1964 के दिन 39 वर्ष की अल्पायु में ही हमेशा के लिए मुरझा गया.
"एक हाथ से देती है दुनिया सौ हाथों से ले लेती है यह खेल है कब से जारी!''

I Recommend these videos to fans of Gurudutt sahib , please Watch them-
Part-1
Part-2
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प्रस्तुति--अल्पना वर्मा
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गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

"श्री सिद्धगिरी म्यूजियम कोल्हापुर, महाराष्ट्र"

श्री सिद्धगिरी म्यूजियम, कोल्हापुर [महाराष्ट्र]
Siddhagiri Museum , Kolhapur [Maharashtra]
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एक ऐसा गाँव जहाँ किसान हल और बैल के साथ खड़े मिलेंगे। गाँव की औरतें कुंए में पानी भरने जाती हुयी दिखेंगी। बच्चे पेड़ के नीचे गुरुकुल शैली में पढ़ाई कर रहे हैं, किसान खेत में भोजन कर रहे हैं और आस-पास पशु चारा चर रहे हैं। गाँव के घरों का घर-आँगन और विभिन्न कार्य करते लोग, लेकिन सब कुछ स्थिर ...ठहरा हुआ फिर भी एकदम सजीव,,,जीवंत। जी हाँ यह सब आपको देखना हो तो महाराष्ट्र के कोल्हापुर जाना होगा।
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महाराष्ट्र में कोल्हापुर को न सिर्फ दक्षिण कीकाशी,’ बल्कि महालक्ष्मी मां के आवास के रूप में भी जाना जाता है। यहां के प्राचीन मंदिर देश-विदेश के पर्यटकों के आकर्षण का विषय हैं। कोल्हापुर से केवल दस किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा-सा शांत गांव है - कनेरी, जहां पर
Siddhagiri Math
बना है देश के प्राचीनतम मठों में गिना जाने वाला सिद्धगिरी मठ। सिद्धगिरी मठ के 27वें मठाधिपति श्री काड़सिद्धेश्वर महाराज के शुभ हाथों से ‘श्री सिद्धगिरी म्यूजियम की नींव रखी गई। जुलाई 2007 में इसका उद्घाटन हुआ। आठ एकड़ के खुले क्षेत्र में फैली यह जगह गांव की दुनिया की झलक दिखलाती है। आज पूरे देश में अपने आप में इकलौता और अनूठा म्यूजियम कहलाता है ये सिद्धगिरी म्यूजियम। यहाँ ग्रामीण जिंदगी की छवियों को मूतिर्यो में समेटने की कोशिश की गई है। इस संग्रहालय की स्थापना लन्दन के मैडम तुसॉद मोम संग्रहालय से प्रेरित होकर की गई है।
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संग्रहालय की स्थापना करने वाले सिद्धगिरि गुरुकुल के प्रमुख काड़सिद्धेश्वरShree S.S. Kadsiddheshwar Maharaj, Siddhagiri Math
स्वामी का कहना है कि, "यूं तो हमने इसकी प्रेरणा मैडम तुसॉद संग्रहालय से ली है, पर यह संग्रहालय महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित है। गांधी जी हर गांव को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अहम स्थान दिलाना चाहते थे। यह संग्रहालय भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की महत्ता को दर्शाता है।"
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संग्रहालय में कई प्राचीन संतों की मूर्तियां हैं। उदाहरण के लिए एक पेड़ के नीचे महर्षि पातंजलि को प्राचीन शैली में कक्षा लेते दिखाया गया है। कुछ ही मीटर की दूरी पर महर्षि कश्यप को एक रोगी का इलाज करते दिखाया गया है। यहां महर्षि कणाद को वैज्ञानिक शोध में लीन देखा जा सकता है, वहीं महर्षि वराहमिहिर ग्रह-नक्षत्रों की दुनिया से अपने शिष्यों को अवगत कराते नजर आते हैं।
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ईंट, पत्थरों से निर्मित इस संग्रहालय में प्रतिमाओं का निर्माण सीमेंट से किया गया है। इसके लिए करीब 80 कुशल मूर्तिकारों की सेवा ली गई। इसके प्रबंधक इसे खुला प्रदर्शन परिसर कहना पसंद करते हैं, जहां की मूर्तियां बारिश, गर्मी आदि को झेलने के बावजूद अपनी चमक बनाए हुई हैं।
[समस्त चित्र जानकारी अंतरजाल से साभार]
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सधन्यवाद
क्रियेटिवमंच
creativemanch@gmail.com
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The End

रविवार, 6 दिसंबर 2009

विविध रोगों में आहार-विहार

प्रस्तुति -- इंजीनियर श्री सी० पी० सक्सेना


उपनिषद के अनुसारः
'अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्-तस्मात् सर्वौषधमुच्यते।'

अर्थात् भोजन ही प्राणियों की सर्वश्रेष्ठ औषधि है, क्योंकि आहार से ही शरीर में सप्तधातु, त्रिदोष तथा मलों की उत्पत्ति होती है। वायु, पित्त और कफ – इन तीनों दोषों को समान रखते हुए आरोग्य प्रदान करता है और किसी कारण से रोग उत्पन्न हो भी जायें तो आहार-विहार के नियमों को पालने से रोगों को समूल नष्ट किया जा सकता है।

आहार में अनाज, दलहन, घी, तेल, शाक, दूध, जल, ईख तथा फल का समावेश होता है। अति मिर्च-मसाले वाले, अति नमक तथा तेलयुक्त, पचने में भारी पदार्थ, दूध पर विविध प्रक्रिया करके बनाये गये अति शीत अथवा अति उष्ण पदार्थ सदा हानिदायक हैं। दिन में सोना, कड़क धूप में अथवा ठंडी हवा में घूमना, अति जागरण, अति श्रम करना अथवा नित्य बैठे रहना, वायु-मल-मूत्रादि वेगों को रोकना, ऊँची आवाज में बात करना, अति मैथुन, क्रोध, शोक आरोग्य नाशक माने गये हैं। कोई भी रोग हो, प्रथम उपवास या लघु अन्न लेना चाहिए क्योंकि प्रायः सभी रोगों का मूल मंदाग्नि है।
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रोग के अनुसार आहार-विहार
बुखारः
बुखार में सर्वप्रथम उपवास रखें। बुखार उतरने पर 24 घंटे बाद द्रव आहार लें। इसके लिए मूँग में 14 गुना पानी मिलायें। मुलायम होने तक पकायें, फिर छानकर इसका पानी पिलायें। यह पचने में हलका, अग्निवर्धक, मल-मूत्र और दोषों का अनुलोमन करने वाला और बल बढ़ाने वाला है। प्यास लगने पर उबले हुए पानी में सोंठ मिलाकर लें । बुखार के समय पचने में भारी, विदाह उत्पन्न करने वाले पदार्थों का सेवन, स्नान, व्यायाम, घूमना-फिरना अहितकर है। नये बुखार में दूध और फल अत्यंत हानिदायक हैं ।
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कमजोरी व थकान :

गेहूँ, पुराने साठी के चावल, जौ, मूँग, घी, दूध, अनार, काले अंगूर विशेष लाभदायक हैं । शाकों में पालक, तोरई, मूली, परवल, लौकी और फलों में अंगूर, आम, मौसमी, सेब आदि लाभ- दायक हैं। गुड़, भूने हुए चने, काली द्राक्ष, चुकन्दर, गाजर, हरे पत्तेवाली सब्जियाँ लाभदायी हैं। पित्त बढ़ाने वाला आहार, दिन में सोना, अति श्रम, शोक-क्रोध अहितकर हैं।
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अम्लपित्तः

उपवास रखें या हलका, मधुर व रसयुक्त आहार लें। पुराने जौ, गेहूँ, चावल, मूँग, परवल, पेठा, लौकी, नारियल, अनार, मिश्री, शहद, गाय का दूध और घी विशेष लाभदायक हैं। तिल, उड़द, कुलथी, नमक, लहसुन, दही, नया अनाज, मूँगफली, गुड़, मिर्च तथा गरम मसाले का सेवन न करें।
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अजीर्णः

प्रथम उपवास रखें। बारंबार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में गुनगुना पानी पीना हितकर है। जठराग्नि प्रदीप्त होने पर अर्थात् अच्छी भूख लगने पर मूँग का पानी, नींबू का शरबत, छाछ आदि द्रवाहार लेने चाहिए। बाद में मूँग अथवा खिचड़ी लें। पचने में भारी, स्निग्ध तथा अति मात्रा में आहार और भोजन के बाद दिन में सोना हानिकारक है।
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चर्मरोगः

पुराने चावल तथा गेहूँ, मूँग, परवल, लौकी तुरई विशेष लाभदायक हैं। अत्यंत तीखे, खट्टे, खारे पदार्थ, दही, गुड़, मिष्ठान्न, खमीरीकृत पदार्थ, इमली, टमाटर, मूँगफली, फल, मछली आदि का सेवन न करें। साबुन, सुगंधित तेल, इत्र आदि का उपयोग न करें। चंदन चूर्ण अथवा चने के आटे या मुलतानी मिट्टी का प्रयोग करें। ढीले, सादे, सूती वस्त्र पहनें।
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सफेद दागः

चर्मरोग के अनुसार आहार लें और दूध, खट्टी चीजें, नींबू, संतरा, अमरूद, मौसमी आदि फलों का सेवन न करें।

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संधिवात, वातरोगः
जौ की रोटी, कुलथी, साठी के लाल चावल, परवल, सहिजन की फली, पपीता, अदरक, लहसुन, अरंडी का तेल, गोझरन अर्क, गर्म जल सर्वश्रेष्ठ हैं। भोजन में गौघृत, तिल का तेल हितकर हैं। आलू, चना, मटर, टमाटर, दही, खट्टे तथा पचने में भारी पदार्थ हानिकारक हैं।
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श्वास (दमा) :
अल्प मात्रा में द्रव, हलका, उष्ण आहार लें। रात्रि को भोजन न करें। स्नान करने एवं पीने के लिए उष्ण जल का उपयोग करें। गेहूँ, बाजरा, मूँग का सूप, लहसुन, अदरक का उपयोग करें। अति शीत, खट्टे, तले हुए पदार्थों का सेवन, धूल और धुआँ हानिकारक हैं।
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मिर्गीः
10 ग्राम हींग ताबीज की तरह कपड़े में सिलाई करके गले में पहनने से मिर्गी के दौरे रुक जाते हैं।

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The End
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सोमवार, 16 नवंबर 2009

धार्मिक मान्यताएं और वैज्ञानिक आधार (2)

-- इंजीनियर श्री सी० पी० सक्सेना

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दक्षिण - दिशा की ओर पैर करके सोना वर्जित क्यूँ ?


सभी पढ़े-लिखे व्यक्ति यह जानते हैं कि दो चुम्बकों को पास ले जाने पर उत्तरी ध्रुव दक्षिणी ध्रुव को तथा दक्षिणी ध्रुव उत्तरी ध्रुव को अपनी ओर खींचते हैं तथा सामान ध्रुवों को परस्पर पास ले जाने पर वे एक दुसरे को दूर धकेलते हैं !

चुम्बक की एक यह भी विशेषता है कि यदि दो असमान चुम्बक यानी एक बड़े तथा दुसरे छोटे चुम्बक को पास में इस प्रकार बाँध कर रख दिया जाए कि दोनों का उत्तरी ध्रुव, उत्तरी ध्रुव की ओर तथा दक्षिणी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव की ओर रहे तो लगभग 300 दिनों बाद दोनों चुम्बकों को खोलकर उनकी जांच करने पर ज्ञात होता है कि छोटे चुम्बक की चुम्बक शक्ति समाप्त हो गयी है !


सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी, जिस पर हम लोग निवास करते हैं, काफी शक्तिशाली चुम्बक है जिसके दोनों छोर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव कहलाते हैं ! मनुष्य के शरीर में भी चुम्बक शक्ति ही कार्य करती है, जिसका उत्तरी ध्रुव मस्तिष्क की ओर तथा दक्षिणी ध्रुव पैर के तलवे की ओर रहता है ! यदि मनुष्य दक्षिणी की ओर पैर करके सोयेगा तो मनुष्य का उत्तरी ध्रुव पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की ओर तथा दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव की ओर हो जाएगा ! हमारे शरीर का चुम्बक पृथ्वी के चुम्बक की तुलना में बहुत छोटा एवं कम शक्तिशाली है ! इसकी चुम्बकीय शक्ति दिन व दिन क्षीण होती जायेगी ! तरह-तरह की बीमारियाँ घेरने लगेंगी तथा स्मरण शक्ति भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगेगी !


कुछ विद्वानों का तो यह भी मानना है कि लगातार 300 दिन दक्षिण की ओर पैर करके सोया जाए तो मनुष्य में पागलपन के लक्षण उभरने लगते हैं ! शरीर में जब तक चुम्बक शक्ति भली-भांति कार्य करती है तब तक मनुष्य का जीवन, जीवन है इसके समाप्त होने पर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ! यही कारण है कि मनुष्य को मरने के बाद दक्षिण दिशा की ओर पैर करके लिटा दिया जाता है ताकि यदि उसके शरीर में चुम्कीय शक्ति कार्य कर रही हो जिसके कारण मनुष्य के शरीर में किसी प्रकार की तकलीफ महसूस हो रही हो तो वह भी समाप्त हो जाए और मनुष्य शांतिपूर्वक प्राण त्याग कर मृत्यु को प्राप्त कर सके !



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The End
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रविवार, 15 नवंबर 2009

धार्मिक मान्यताएं और वैज्ञानिक आधार (1)

-- इंजीनियर श्री सी० पी० सक्सेना

sindoor

मांग में सिन्दूर भरना आवश्यक क्यों ?


सुषमणा नाड़ी ह्रदय से सीधी मस्तक के सामने से होती हुयी ब्रह्म-रंध्र में पहुंचती है ! ब्रह्म-रंध्र और अधिप नामक मर्म के ठीक ऊपर भाग पर सिन्दूर लगाया जाता है ! मांग को सिर के बीचों-बीच निकालने का चलन इसीलिए बनाया गया है ! सिन्दूर में पारा धातु पर्याप्त मात्रा में रहता है ! मर्म स्थान में रोम छिद्रों द्वारा पारे का कुछ अंश सुषमणा नाड़ी की सतह तक पहुंचता रहता है ! जनेन्द्रियों को क्षति पहुंचाने वाले कीटाणु जब मर्म स्थान से सुषमणा नाड़ी में रक्त के साथ प्रवाहित होते हैं तब पारा उन्हें नष्ट कर देता है ! फलस्वरूप बुद्धिमान एवं स्वस्थ बच्चे का जन्म होता है !

बच्चों की देखभाल, अन्य घरेलू कार्य तथा बालों को सुखाने में समय लगने के कारण स्त्रियों को नित्य सिर धो पाना संभव नहीं हो पाता है, जिसके कारण सिर में जूं एवं लीखें पड़ जाती हैं ! मांग में सिन्दूर रहने पर जूं इत्यादि का खतरा नहीं रहता चूंकि पारा जूं की अचूक औषधि है ! सिन्दूर से सौंदर्य बढ़ जाता है ! परन्तु उपरोक्त गुणों के अतिरिक्त सिन्दूर में एक गुण यह भी है कि यह महिलाओं में उत्तेजना पैदा करता है ! इसीलिये कुँवारी कन्याओं एवं विधवाओं को सिन्दूर लगाना वर्जित है !


विशेषज्ञों के अनुसार विशिष्टियों (मानक) के अनुसार सिन्दूर बनाने का कोई भी कारखाना भारत में नहीं है जो कि खेद का विषय है ! आजकल बाजार में सामान्यतः जो सिन्दूर बिकता है वह सेलखड़ी, खडिया पीस कर या आरारोट में विभिन्न रंग मिलाकर उसमें कुछ मातृ में लेडआक्साईड मिलाकर बनाया जा रहा है ! लेडआक्साईड त्वचा के लिए अत्यंत हानिकारक है ! कैंसर जैसे रोग होने की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है ! शासन एवं समाजसेवी संस्थाओं को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है !



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The End
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

सांझी-रंगोली-अल्पना : सांस्कृतिक विरासत

[ समाज और संस्कृति ]


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मनुष्य जन्मतः कलाकार है ! मानव विकास के साथ कलाओं का विकास जुड़ा हुआ है ! कलाएं मानव जाति के इतिहास, पुराण, सभ्यता, संस्कृति, उत्थान-पतन का भी दस्तावेज है ! उसकी निजी जीवन के सुख-दुःख, जय-पराजय, की भी साक्षी है ! वात्स्यायन ने चित्रकला को श्रेष्ठ कलाओं में माना है ! अक्षरो के आविष्कार का श्रेय भी चित्रकला को जाता है ! आदि मानव चित्रों के माध्यम से ही चिंतन भी किया करते थे ! मनुष्य में भूमि के प्रति अनन्य निष्ठां रही है ! समस्त प्राचीन संस्कृतियों में किसी ना किसी रूप में मातृदेवी अथवा भूदेवी की पूजा का विधान रहा है !

भूमिचित्रों में पर्याप्त विविधता है ! विशेष भूभागों की स्थानीय रुचियाँ, लोक कथाएँ, किवदंतियां, पौराणिक कहानियां, स्थानीय देवी-देवता, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, पर्व-त्यौहार उस क्षेत्र के अलंकरणों का प्रेरणा श्रोत बने ! स्थान परिवर्तन से रंग और रेखाएं भी अलग हुयीं ... नाम भी अलग हो गए पर मूल भावना एक ही रही -- अपनी संस्कृति, अपनी प्रकृति, लौकिक माध्यम से अलौकिक का आह्वान !
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नामों में अनेकानेक भिन्नताएं है ! बंगाल में इसे "अल्पना" कहते हैं, उडीसा में "ओसा", अल्मोडा-गढ़वाल में "अपना" है तो बिहार-झारखंड में "अरिपन", उत्तर-प्रदेश में "सोन रखना" या "चौक पूरना" कहा जाता है तो राजस्थान में "मांडणा", गुजरात में इस समृद्ध परंपरा को "साथिया" नाम से जाना जाता है, ब्रज और बुंदेलखंड में "सांझी", पहाड़ी क्षेत्रो में यह "आंनी" है! तो सुदूर तमिलनाडु में "कोलम", केरल में "ओनम", आँध्रप्रदेश में "मुग्गू" ! महाराष्ट्र की "रांगोली" तो विख्यात है ही ! अपने-अपने क्षेत्र में हर मांगलिक अवसर पर इनके माध्यम से मनुष्य की प्रार्थना, भावना, आत्मीयता, और प्रसन्नता अभिव्यक्ति पाती है, संस्कृति की पहचान बनती है, पूरे देश की आत्मा का संगीत मुखरित होता है !
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महाराष्ट्र की 'रंगोली' के लिए पहले उजले चमकदार पत्थरों को गर्म कर चूर्ण बनाया जाता था, फिर पत्तों को उबालकर उसके कई तरह के रंग बनाये जाते थे ! अब रासायनिक रंगों का प्रयोग होने लगा है ! गुजरात के 'साथिया' में चाकलेटी, मोरपंखी या बैगनी रंगों की प्रमुखता होती थी ! राजस्थानी 'मांडणों' में लाल, भूरा, हरा रंग चमकता है ! दीपावली के 'मांडणे' में सफेद रंग होता है ! ब्रज या बुंदेलखंड में की 'सांझी' स्थानीय लोक-कथा को लेकर बनायीं जाती है ! गोबर से लिपी-पुती जमीन पर एक लड़की की आकृति बनाकर विभिन्न सूखे रंगों, रंग-बिरंगे फूलों से 'सांझी' का रेखांकन व श्रृंगार होता है ! बंगाल की 'अल्पना' में सफेद, पीले और लाल रंगों की अधिकता होती है ! ये चित्र स्वास्थ्य, समृद्धि और मंगल कामना को लेकर बनाए जाते हैं ! प्रत्येक शुभ अवसर पर चाहे वह धार्मिक उत्सवों पूजनों का हो या सामाजिक समारोहों का हो, या विवाह का या सोलह संस्कारों में से किसी एक का हो !
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गृहणियां, कन्याएं, इन चित्रों के द्वारा अपनी मंगल कामना प्रकट करती हैं ! पुरुषों के द्वारा भूअलंकरण केवल तांत्रिक विधानों में अथवा विशेष पूजा में किया जाता है ! भूअलंकरण अत्यंत पवित्र उदभावना है !

इन चित्रों की पूजा नहीं होती, पर इनमें पूजा भाव निहित है ! व्यक्ति के साथ परिवार, परिवार के साथ समाज, विभिन्न समाजों के साथ एक राष्ट्र के उत्कर्ष, विस्तार और मंगल की कामना से परिपूर्ण, मातृशक्ति द्वारा संचालित यह कला हमारे राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है !

शनिवार, 15 अगस्त 2009

स्वतंत्रता संग्राम का जब्त साहित्य

स्वतंत्रता संग्राम की यह दुर्लभ कवितायें हमें क्रिएटिव मंच के लिये विनीता यशस्वी ने उपलब्ध करायी हैं। हम अपनी पूरी टीम की तरफ से उनका धन्यवाद करते हैं और उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी वो अपना योगदान हमें देती रहेंगी।
महात्मा गाँधी जी सभा को संबोधित करते हुए

1857 से लेकर 1947 यानी आजाद होने तक के जब्त साहित्य का कोई सिलसिलेबार ब्योरा उपलब्ध नहीं है ! कुछ बिखरा पड़ा है, जिसे तलाश कर पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जाना अभी शेष है ! यह काम इसलिए भी होना जरूरी है, क्योंकि अब तक उपलब्ध अधिकाँश तत्कालीन इतिहास अंग्रेजों या उनके प्रभाव के भारतीयों द्बारा विरचित है और इसकी राष्ट्रीय व्याख्या तभी संभव हो सकती है जब हम उन देश भक्त अमर शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों द्बारा लिखित रचनाओं को तलाश कर निकालें ! इससे हमारी नयी पीढी को यह तालीम भी मिल सकेगी कि जिस आजाद माहौल में वे आज सांस ले रहे हैं -- दरअसल वह एक लम्बी लडाई और तमाम कुर्बानियों के नतीजतन ही है !

हम कुछ ऐसे गीतों की झलक आपको दिखा रहे हैं जो आजादी की लडाई के दिनों बहुत लोकप्रिय थे ये वो समय था जब ब्रिटिश हुकूमत आजादी से प्रेरित साहित्य का चुन-चुनकर दमन कर रही थी ! इन गीतों को पूर्णतयः प्रतिबंधित कर दिया गया था !

प्रस्तुत है 1857 के क्रांतिकारी सिपाहियों का झंडा गीत - जिसकी रचना क्रांतिवीर अजीमुल्ला ने की थी :
हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा
पाक वतन है कॉम का, जन्नत से भी प्यारा
ये है हमारी मिल्कियत, हिंदुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा
कितना कदीम, कितना नईम, सन दुनियों से न्यारा
करती है जरखेज जिसे गंगो-जामुन की धारा



मेरा वतन
[यह गीत आजादी की लडाई के दौरान सबकी जुबान पर मुखरित होता था ! मेरा वतन 'इकबाल' का दूसरा ऐसा गीत था, जो कौमी एकता का सशक्त प्रतीक था ]
चिश्ती ने जिस जमीं में पैगामें हक सुनाया,
नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गाया,
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
जिसने हेजाजियों से दश्ते अरब छुडाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वतन वही


अहद
[सागर निजामी दुश्मनों के हर जुल्म को सहने के लिए तैयार रहने का सन्देश अपनी रचनाओं द्वारा भारतवासियों को देते रहते थे, उनका यह गीत उन दिनों बेहद प्रसिद्द था ]
वतन ! जब तुझपे दुश्मन गोलियां बरसाएंगे,
सुर्ख बादल जब फिजाओं पे तेरी जायेंगे,
जब समंदर आग के बुर्जों से टक्कर खाएँगे,
वतन ! उस वक्त भी मैं तेरे नग्में गाऊंगा
तेरे नग्में गाऊंगा और आग पर सो जाऊँगा
गोलियां चारों तरफ से घेर लेंगी जब मुझे,
और तनहा छोड़ देगा जब मिरा मरकब मुझे,
और संगीनों पे चाहेंगे उठाना सब मुझे,
वतन ! उस वक्त भी मैं तेरे नग्में गाऊंगा


मैं उनके गीत गाता हूँ
[उन दिनों देश के लिए कुर्बान होना आम बात थी बहादुर देशवासियों के लिए कितने सशक्त गीतों एवं गजलों की रचना कवियों ने की थी, वे जोशीले गीत आज हमारी धरोहर बनकर रह गए हैं, जां निसार 'अख्तर' का यह गीत अविस्मर्णीय है ]
मैं उनके गीत गाता हूँ, मैं उनके गीत गाता हूँ !
जो शाने पर बगावत का आलम लेकर निकलते हैं,
किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूँ, मैं उनके गीत गाता हूँ


आह्वान
[भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास में अशफाक उल्ला का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है ! आजादी की लडाई में उनका यह आह्वान - गीत अंग्रेजी हुकूमत ने जब्त कर लिया था किन्तु यह गीत गली-गली में गाया जाता था ]
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आजाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढा देंगे


स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री के रूप में नेहरू जी का शपथ ग्रहण समारोह



मैं क्रिऐटिव मंच की पूरी टीम को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें देती हूं साथ ही धन्यवाद भी करती हूं कि उन्होंने मुझे अतिथि संपादक के रूप में इस मंच में बुलाया और यह मेरे लिये गर्व की बात है कि इस ब्लॉग की पहली पोस्ट भी मेरे ही द्वारा लिखी जा रही है।
क्रिएटिव मंच की पूरी टीम को इस ब्लॉग की सफलता के लिये शुभकामनायें।
वन्दे मातरम्

-----विनीता यशस्वी